Description
मैं यह नहीं कह सकता कि प्रारम्भ कहाँ से हुआ है, यहाँ हर कड़ी किसी दूसरे कड़ी से जुड़ी है। लोग कहते हैं कि मेरा यह दर्शन मेरे पिछले जन्मों का संस्कार है। किन्तु मुझे लगता है कि यह मेरे भीतर का कौतूहल है जो कारण जानना चाहता है। यह एक उत्सुकता है जो सत्य जानना चाहता है। पश्चिम के विद्वान हिन्दू दर्शन को myth (मिथक) कहते हैं। अर्थात वे ऋचाएँ जो हमने अपने वेदों में पढ़ा, जो उन्होंने ब्रह्म और ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में चर्चाएँ की वे सभी कल्पनाएँ हैं। अर्थात वे कहानियाँ जो हमने अपने पुराणों में सुना, वे सभी कहानियाँ हमारी कल्पनाएँ हैं, उन सभी देवताओं का कोई अस्तित्व नहीं। यह बात हृदय में एक कौतूहल पैदा करता है कि ऐसा क्यों है कि हिन्दूदर्शन इतने अधिक देवताओं की उपासना करता है? आखिर उन देवताओं का अस्तित्व क्या है?
मेरा यह प्रश्न मुझे उस खोज पर लेकर गया जिसे मैं अपना अस्तित्व कहता हूँ। मेरे अस्तित्व की खोज में मुझे कई गुरुओं का सानिध्य प्राप्त हुआ, जिन्होंने मुझसे कहा कि वह जिसे तुम खोज रहे हो वह तुम ही हो, तत्त्वमसि। मैंने अपने इस खोज में अपनी वासना को जाना, अपने पशुवृत्ति को जाना, अपने अहंकार को जाना, अपने भय और भूख को जाना, अपनी प्रज्ञान को जाना। मेरी हर प्राप्ति मुझे एक नया प्रश्न देती थी। मुझे मेरे प्रश्नों ने ही दिशा दी है। इसतरह राह चलते-चलते, मेरे सामने कलियुग के सम्बन्ध में एक प्रश्न आया। यह प्रश्न मुझसे मेरे मित्र पंकज सिंघानिया जी ने किया, उन्होंने मुझसे पूछा कि “कलियुग में लोगों का व्यवहार कैसा होगा?” मैंने उनके उत्तर में युगों का वर्णन किया किन्तु युग का सृजन ब्रह्मा ने किया है, इसलिए मुझे त्रिदेव के बारे में कहना पड़ा, किन्तु त्रिदेव देवी आद्या की प्रेरणा से आये हैं, इसलिए मुझे देवी आदिशक्ति के बारे में भी कहना पड़ा। किन्तु देवी आदिशक्ति इतनी व्यापक हैं कि उनके लिए मुझे हमारी भावनाएँ जैसे भय और भूख, वासना, अहंकार और पशुवृत्ति आदि को भी कहना पड़ा। और इतना सब कहते-कहते यह सुनने वाले के लिए इसे समझना कठिन हो गया। यह किताब इसी की कहानी है। यह एक प्रयास है कि यह आपको आपके बारे में समझा सके, यह आपको आपके देवताओं के बारे में समझा सके। यह कलियुग है, हर युग में एक नए ग्रंथ की आवश्यकता होती है, तो यह आपके लिए प्रस्तुत है, और इसका नाम है “कलियुग के देवता”।
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